इस पनघट से उस पनघट तक
घूमा घट से गंगा तट तक
मन का मुसाफिर फिर भी प्यासा है ,
इन अधरों को तुमसे आशा है
मयखाने की ओर ना देखूँ नीलगगन का छोर न देखूँ
तुम यदि मेरी ओर देख लो मै दुनिया की ओर न देखूँ
इन नयनों को उन नयनों से
इन सपनो को उन सपनों से
सदियों लम्बी एक दिलाशा है
इन अधरों .....................
मंदिर से क्या चाह सुनाऊं मस्जिद की क्या थाह लगाऊं
तुम मेरे हमराह बनो तो मै जन्नत की राह न जाऊं
गुरूद्वारे से गिरजाघर तक
इस धरती से उस अम्बर तक
बोल रहे खग प्यार की भाषा है
इन अधरों.............................
पत्थर भी यदि हँसते रोते हम इतने अनमोल न होते
अक्षर मिटटी मोल न होते प्यार के दो यदि बोल न होते
पंखुरियों के द्वार खोल दो
मेरे लिए इक बार बोल दो
प्रियतम की प्रिय से अभिलाषा है
इन अधरों............................
शनिवार, 10 दिसंबर 2016
इन अधरों को तुमसे आशा है
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वाह्ह्ह्ह्ह् वाह बहुत खूब
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