शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

सवैये {होली}

सवैये 

रंग से रंग मिले इतने ख़ुद रंग में डूब नहा गयी होली,
प्रेम पुरातन जाग पड़ा फिर प्रेम की प्यास जगा गयी होली,
साजन हैं जिनके घर में उनके हर शोक भगा गयी होली,
दूर बसे जिनके उनके बस देंह में आग लगा गयी होली।

2
रंग लगा गयी गाल पे जो हम चाह के भी तो छुड़ा नहि पाए 
फ़ूल की गंध में लीन रहे बस फ़ूल की गंध चुरा नहि पाए 
हाथ हिला गए आप चले हम चाह के हाथ हिला नहिं पाए 
नैन से दूर गए तुम तो किसी और से नैन मिला नहि पाए 
3
पत्र पठाए कई सब लौट के आए तुम्हारा पता नही पाए 
पाँव चले कई मील चले पर ठीक कोई रस्ता नहि पाए 
सूरज ही ना मिला ढलता हुआ चाँद  नहीं उगता हुआ पाए 
प्यार किया तुमसे तुमसे पर बात यही कि बता नहि पाए।
4
आए तो आप बुलाए नही जो बुलाए भी तो हम आ नहि पाए 
जा तो रहे थे कि जाएँ चले जब जाने लगे तब जा नहि पाए 
एक तुम्हीं न मिली मुझको हम और भला अब क्या नहिं पाए 
प्यार मिला दुनिया का हमें हम ही अपनी दुनिया नहि पाए 
(५)
बात यही इतनी जितना समझे उतना समझा नहि पाए,


राह न यूँ बदलो अपनी हम यूँ नही  तेरी राह में आए,
बाँह न जाने खुली कितनी पर एक तुम्हारी ही बाँह में आए,
थाहते थाहते सिन्धु कई अब नैन के सिन्धु अथाह में आए।
नैन हटे लगा आम की छाँह को छोड़ बबूल की छाँह में आए।


बालपना गुज़रा है अभाव में साहब सेठ नही बन पाए 
और जवान हुए तब रूप शिकारियों ने खूब जाल बिछाये 
चोर मिले चितचोर मिले पर चोरी में जा न सके हैं चुराए 
हाथ तुम्हारे लगे हम वो जो कभी भी किसी के भी हाथ न आये ।

मैं न कभी मिल पाता  तुम्हें मिलवाए गये हैं तभी मिल पाए ।
सत्य यही है कि ईश्वर चाह रहा था तुम्हें मुझसे चहवाये।
चाह ले दो दिल दूर करे वह चाह ले दो बिछड़ों को मिलाए।
चाह उसी की गजेन्द्र जहाँ पर शूल उगे वहाँ फ़ूल खिलाए 

चाह ले राई पहाड़ करे वह चाहे पहाड़ को राई बनाए 
चाहे तो भीख मंगा दे गली गली चाहे तो वी ठकुराई दिलाए 
चाह ले वो दुर्योधन का घर त्याग दे साग विदूर के खाए,
चाह ले तो कुटिया में रहे चाहे स्वर्ण की लंका में आग लगाए।

प्यार की रीति निबाह दो प्यार मिले न मिले यूं निबाहने वाला।
रूप तुम्हारा समन्दर है दिल मेरा समन्दर थाहने वाला।
यौवन भार से देह झुकी इसे चाहिए कोई सम्हालने वाला 
चाह नही तुम्हें आज मेरी कल चाह रहेगी न चाहने वाला।!

पतिव्रत से ऊंचा राष्ट्र धर्म

पति धर्म से ऊपर 
पतिव्रत से ऊँचा राष्ट्रधर्म,
नारी यह समझे गूढ़ मर्म,
वह भरत जननि वह वीर प्रिया 
सब सोंच समझ कर रही कर्म 
वह देव विजयिनी कैकेयी दुविधा मेअश्रु बहाए ,
निर्णय लेना है अभी राम राजा हों या वन जाए।

वन के तपसी उन ऋषियों के 
तप व्रत भजनो का क्या होगा ?
सरवन की बूढ़ी माता के,
शापित वचनों का क्या होगा ?
क्या होंगे सपन  जटायु के,
नारद के श्राप कहाँ होंगे,
दिन प्रतिदिन कटते जाते माँ
शबरी के पाप कहाँ होगे ?
क्या होगा भक्ति भावना का भगवान ना यदि जा पाए ,
निर्णय लेना है अभी राम राजा हो या वन जाए ।

गंगा तट पर केवट बैठा होगा 
दर्शन अभिलाषा में,
राहें सुग्रीव देखता ही होगा,
प्रतिदिन इस आशा में,
संहार करेंगे रामचंद्र 
इस नीच अधर्मी बाली का 
रावण भी चाह रहा होगा 
उद्धार करें प्रभु पापी का 
उन सबकी चाह मरे मुझसे या फिर ममता मर जाए 
निर्णय ..........................  ........................।
जो धर्म एक क्षत्राणी का  
वह धर्म निभाना ही होगा,
निशप्रानित मानवता,
अमृत घट से नहलाना ही होगा,
रघुकुल की लाज बचाने में,
राजन को सद्गति पाने दूँ,
चारों दिशि राष्ट्र सुरक्षा में,
रघुनन्दन को बन जाने दूँ।
बलिदान बिना कब होती हैं रक्षित भू की सीमाएँ,
निर्णय ..........................  ........................।
सीमाओं पर पति और पुत्र,
कलियुग में कौन पठाएगा,
जब त्रेता सतयुग द्वापर,
कायरता की लीक बनाएगा,
दुनिया अनुसरण करेगी यह 
रघुकुल कायर कहलाएगा,
पति और पुत्र का मोह,
राष्ट्र की रक्षा को खा जाएगा।
वरना क्या सीखेंगी हमसे,
कल आने वाली माँयें।
निर्णय ..........................  ........................।
इतिहास कलंकित कर बैठी,
माटी में नाम मिला बैठी ,
पर देश भक्ति के वह 
ऊँचे सिंहासन सीधे जा बैठी,
ऐसे वलिदान देश हित में 
एक नारी ही दे सकती है,
नारी दुनिया की रचना से 
ना रुकती है ना थकती है।
दुनिया को अमृत बाँट रही पीकर विष की कुण्ठाएँ,
निर्णय .....................................................।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

वह कौन है मेरी निगाहों में

वह कौन है मेरी निगाहों में ?
वह कौन है?
इन आँखों में पलते-पलते,
इक दिन यूँ ही चलते चलते,

टकरा गया मुझसे राहों में।,
वह कौन है ?

वह कौन भिगो जाता पलकें हौले हौले से मुस्काकर,
मेरे उदास होते आता आकर धीरे से दुलराकर,
क्षण भर को दूर चला जाता क्षण भर को आता बाँहों में,
वह कौन है?

वह कौन है जो ख़ुशबू भरकर महका जाता है स्वाँस स्वाँस,
कुछ पल को मेरे कमरे में आ करके कर जाता प्रवास,

देता है सजा पुण्य में कर देता है माफ़ गुनाहों में,
वह कौन है ?

मेरे कड़वे पन को पीकर हंस हँसकरके सब सह लेता है,
झरनों के संग जन्मा फिर भी मुझ  मरुथल में रह लेता है,

जीवन भर साथ निभाता  संग संग जाता  है क़ब्रगाहों में,
वह  कौन है ?

प्रियांशु गजेन्द्र

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

सुबह छपे अखबार में

कहीं प्रशंसा कही से ताली
कहीं भरा दिल कहीं से ख़ाली 
मैंने इतनी उमर बिताली जैसे तैसे प्यार में।
रात रात भर तुमको गाया सुबह छपे अख़बार में।

पाँव बेचकर सफ़र ख़रीदा सफ़र बेचकर राहें,
जब खुद को मै बेंच चुका तो सबकी पड़ी निगाहें,
नींद बेचकर सपन ख़रीदे 
सपने बेच तबाही,
कागज बेंचे कलम ख़रीदी 
कलम बेचकर स्याही।
जीवन कई रंग में रंगा रंगों के व्यापार में,
रात रात भर तुमको गाया सुबह छपे अख़बार में।

कुछ गीतों से चित्र बनाए कुछ गीतों में रास रचा ली,
पनघट पनघट घूमे फिर भी अब तक अपनी प्यास बचा ली,
कुछ गीतों में हम खोए तो 
कुछ में दुनिया खोई,
कुछ गीतों में जब हम रोए ,
संग संग दुनिया रोई,
अब मुस्कानें बेच रहा हूँ आँसू के बाज़ार में,
रात रात भर तुमको गाया सुबह छपे अख़बार में।

तुम बोलो तुमने जीवन में क्या खोया क्या पाया ?
कौन पराया अपना हो गया अपना कौन पराया ?
कौन फ़ूल डाली से टूटा,
कौन खिला मधुवन में ?
किसके कंगन पहन के,
निकली हो पहले सावन में ?
किस ख़ुशबू से महक रही हो इस निष्ठुर संसार में ?
रात रात भर तुमको गाया सुबह छपे अख़बार में।

प्रियांशु गजेन्द्र