गुरुवार, 2 नवंबर 2017

मुक्तक (चिट्ठी)

सुबह लिख लिखके लायेगी सुहानी शाम की चिट्ठी,
किसी मीरा के मोहन की सिया के राम की चिट्ठी,
किसी ना तो किसी दिन डाकिया देगा मुझे आकर,
तुम्हारे हाथ से लिक्खी हमारे नाम की चिट्ठी।

नयन को पढ़ने दो अपने अधर के जाम की चिट्ठी,
वदन का रंग है या रंग लाई  काम की चिट्ठी,
भले सोने के अक्षर से लिख़ी है रूप की गीता,
न पढ़ पाया कोई अर्जुन तो फिर किस काम की चिट्ठी,

न पढ़ना तुम कभी जग के महासंग्राम की चिट्ठी,
पढ़ो यदि पढ़ सको युद्धों के दुष्परिणाम की चिट्ठी
थी जिन हाथों में तलवारें मिले वे हाथ मिट्टी में,
सिकन्दर की पढ़ो चाहे पढ़ो सद्दाम की चिट्ठी।

पढ़ो तो बस पढ़ो तुम प्यार के परिणाम की चिट्ठी
न गीता बाइबिल कुरआन ना गुरुग्राम  की चिट्ठी,
जो दुनिया पढ़ ही पाती मंदिरों मस्जिद की भाषा तो,
लहू से क्यों लिखी जाती अयोध्या धाम की चिट्ठी।