शनिवार, 30 जून 2018

जिसको गीत सुनाने खातिर

जिसको गीत सुनाने को मै,
रात रात भर भटक रहा हूँ,
पता नही किस राजभवन में
सुख की नींद सो रही होगी,

हवा उधर से इधर आ रही और उधर भी जाती होगी,
मैने याद किया है जिसको याद उसे भी आती होगी,
जिसकी याद भुलाने खातिर,
हम मथुरा से गये द्वारिका,
पता नहीं किस वृन्दावन में,
वह उम्मीद बो रही होगी।

जाने किसके कुटिल अधर ने रंग अधर का लूटा होगा
कसमसाया होगा कितना पर कंगन अभी न टूटा होगा,
जिस पर रंग चढाने खातिर,
सब सांसें हो गयी होलिका,
पता नही किस आलिंगन में
वह बकरीद हो रही होगी

जाने किसकी क्रूर उंगलियां खेल रही होंगी अलकों से,
जिन्हें संवारा करते थे हम अपनी इन भीगी पलकों से,
जिसको पास बुलाने खातिर
हम ही खुद से दूर हो गए,
पता नही किस आवाहन में,
सुनकर गीत रो रही होगी।
प्रियान्शु गजेन्द्र


ओ अभागी आत्मा के प्यार

छोड़ आए एक अनजानी गली में,
फूल में भँवरे में उपवन में कली में
ओ अभागी आत्मा के प्यार ,
तुम क्यों लौट आये।
फिर हुआ है मन बहुत लाचार,
तुम क्यों लौट आये।

पलक पर आंसू अभी सूखे नही थे,
उँगलियाँ भूली नहीं कोमल छुवन को।
देवता नैवेद्य पाकर तृप्त हैं सब,
और तुम प्रस्तुत खड़े फिर से हवन को,
कँपकँपाती श्वांस में घायल अधर से,
फिर न हो पायेगा मंत्रोच्चार,
तुम क्यों लौट आये।

बस अभी कुछ देर पहले चोट खाकर,
हम गिरे थे आज भी सम्हले नहीं है,
कल अभी जिनपर हुए थे पांव घायल,
प्यार के वे पथ अभी बदले नहीं है।
हांफती पतवार उफनाये भँवर से,
फिर न हो पाएगी नैया पार,
तुम क्यों लौट आये।

तार वीणा के सभी उलझे हुए हैं,
चाहते हो तुम अभी संगीत सुनना,
हार बैठा है जो सारे दांव तुम पर,
तुम उसी से चाहते हो जीत चुनना।
लरजते दो होंठ दुखती उंगलियों से,
फिर न हो पायेगा अब श्रृंगार,
तुम क्यों लौट आये।
प्रियान्शु गजेन्द्र





बुधवार, 27 जून 2018

कहो युधिष्ठिर

शरशैय्या पर लगे पूंछने भीष्म पितामह
कहो युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ कैसा लगता है।
कहो युधिष्ठिर।

पतझर सा सूना सूना लगता है उपवन,
या फिर गीत सुनाती हैं अलमस्त हवाएं,
छमछम नूपुर बजते रहते राजभवन में
या फिर करती हैं विलाप व्याकुल विधवाएं।
कहो युधिष्ठिर कौरव कुल के लाल रक्त से,
धुला हुआ यह राजवस्त्र कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर।

धर्म युद्ध है धर्मराज यह कहकर तुमने,
कौरव के समान ही की है भागीदारी,
धर्मयुद्ध था या अधर्म यह ईश्वर जाने,
पर समानतम थी दोनों की हिस्सेदारी।
कहो युधिष्ठिर धर्म युद्ध या केवल हठ में,
मानवता हो गयी ध्वस्त कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर।

गली गली में लाखों प्रश्न खड़े हैं लेकिन,
प्रश्न सभी यदि युद्धों से ही हल हो जाते,
तो राधा के नयन प्रलय के आंसू लाते,
और सुदामा के तंदुल असफल हो जाते,
कहो युधिष्ठिर यह कैसा है धर्म जगत का ,
जीवन ही हो रहा नष्ट कैसा लगता है ।
कहो युधिष्ठिर

धर्मराज धर्मावतार सत्पथ अनुगामी,
तुमसे बढ़कर कौन जानता मर्म हमारा,
धर्म अगर संकट बन जाए राष्ट्रधर्म पर,
तो अधर्म के साथ रहूं था धर्म हमारा।
कहो युधिष्ठिर क्या था मेरा धर्म कि जिससे
जीवन था सब अस्त व्यस्त कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर

क्या अब कर्ण नहीं बहते हैं  गंगाजल में,
क्या निश्चिन्त हो गयी जग में कुन्ती मायें,
सर्वनाश हो गए कहो कुल दुशाशनों के,
या लुटती रहती हैं अब भी द्रुपद सुताएँ।
कहो युधिष्ठिर भोर हो गयी क्या भारत में,
या सूरज हो रहा अस्त कैसा लगता है?
कहो यधिष्ठिर?

प्रियान्शु गजेन्द्र

किसको मन का गीत सुनाऊँ

तुमने खुद को मौन रख लिया
मैंने ढाल लिया गीतों में,
कहो प्रिये युग युग की संचित
मन की पीर कहाँ बरसाउँ,
किसको मन का गीत सुनाऊँ

आग लगी है चन्दन वन में,भीतर भीतर राख हो रहा,
पँछी छोड़ गए हैं जिसको जीवन सूनी शाख हो रहा,
मधुऋतु हुई तुम्हारी साथी
पतझर मेरे साथ चल पड़ा
कहो प्रिये चुभते शूलों को
कैसे कोमल फूल बनाऊं।

दिन यादों का बोझ सम्हाले रात रात भर सपना ढोएं,
तन को दो ही नयन मिले हैं रोएं भी तो कितना रोएं।
तुमने भगवद्गीता पढ़ ली,
कुरुक्षेत्र में भ्रमित खड़ा मै,
कहो प्रिये सम्मुख सब अपने,
किस पर अपना तीर चलाऊं।

अन्धकार फिर जीत न जाये,तम से अमर उजाला हारे,
थक न जाय यौवन का साकी,अक्षय प्रेम का प्याला हारे,
जनम जनम के अमिट प्यार की,
अब तक लाज बचायी लेकिन,
कहो प्रिये किस किस दर्पण से,
इस चेहरे का रंग छुपाऊं।
किसको मन का गीत सुनाऊँ।
प्रियान्शु गजेन्द्र