तुमने खुद को मौन रख लिया
मैंने ढाल लिया गीतों में,
कहो प्रिये युग युग की संचित
मन की पीर कहाँ बरसाउँ,
किसको मन का गीत सुनाऊँ
आग लगी है चन्दन वन में,भीतर भीतर राख हो रहा,
पँछी छोड़ गए हैं जिसको जीवन सूनी शाख हो रहा,
मधुऋतु हुई तुम्हारी साथी
पतझर मेरे साथ चल पड़ा
कहो प्रिये चुभते शूलों को
कैसे कोमल फूल बनाऊं।
दिन यादों का बोझ सम्हाले रात रात भर सपना ढोएं,
तन को दो ही नयन मिले हैं रोएं भी तो कितना रोएं।
तुमने भगवद्गीता पढ़ ली,
कुरुक्षेत्र में भ्रमित खड़ा मै,
कहो प्रिये सम्मुख सब अपने,
किस पर अपना तीर चलाऊं।
अन्धकार फिर जीत न जाये,तम से अमर उजाला हारे,
थक न जाय यौवन का साकी,अक्षय प्रेम का प्याला हारे,
जनम जनम के अमिट प्यार की,
अब तक लाज बचायी लेकिन,
कहो प्रिये किस किस दर्पण से,
इस चेहरे का रंग छुपाऊं।
किसको मन का गीत सुनाऊँ।
प्रियान्शु गजेन्द्र
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