रविवार, 30 जनवरी 2022

मेरे उपवन को छोड़

मेरे उपवन को छोड़ चली जाओ कलियों,
मैंने अब  मदगंधों से नाता तोड़ लिया।
हर मौसम में चाह जिन्हें हरियाली की उन 
सावन के अन्धों से नाता तोड़ लिया।

काँटों से अब ब्याह लिया है जीवन को,
मुस्काती हंसती ये कलियाँ क्या करना,
चलने को जब ठान लिया ही है मन में,
पत्थर हो या मख़मल गलियाँ क्या करना।

जो मंज़िल तक साथ नही दे सकते मेरा,
मैंने उन कन्धों से नाता तोड़ लिया।

कलियाँ नही उगाने का अब मन मेरा तो,
बादल बरसे या बरसे बिन रह जाए,
श्याम नही अब लौटेंगे वृंदावन में फिर,
राधा का काजल ठहरे या बह जाए।

यमुना की लहरें सिमटें या लहराएँ,
मैंने तटबंधों से नाता तोड़ लिया।

थोड़ी सी सुगन्ध की ख़ातिर यौवन का,
रक्त नही दे पाउँगा मैं क्यारी को,
अब चाहे तो सारा पतझर आ जाए,
आग लगे इस फागुन की तैयारी को,

जो इस दिल का गीत नही गा सकते स्वर में,
मैंने उन छ्न्दों से नाता तोड़ लिया।

Priyanshu Gajendra

सोमवार, 20 सितंबर 2021

एक दिन तो

एक दिन तो अलग हमको होना ही है,
कल जो होना है वह आज ही से सही,
दुःख रहेगा तो बस एक ही बात का,
बात सारी रही अनसुनी अनकही।

इस चमन में कहाँ फ़ूल इतने खिले,
हर भ्रमर की जहां पूर्ण हो साधना।
हर नयन में लिखी प्राप्ति की लालसा,
हर अधर पर लिखी प्यास की याचना।

इस तरह से रहा प्यार तेरा भ्रमर,
जब रहा तब रहा अब नही तो नही।

तुम भी फूलो फलो हम भी फूलें फ़लें
ज़िन्दगी उस विधाता का उपहार है,
वह किसी को भला दे सकेगा तो क्या
अपने ऊपर नही जिसका अधिकार है,

प्यार के पन्थ में क्या  सही क्या ग़लत,
जो ग़लत वह ग़लत जो सही वह सही।

हम मुसाफ़िर हैं इस रात की भोर तक,
एक सूरज सुबह हमको ले जाएगा,
वाष्प की बूँद ने  ने यूँ कहा फ़ूल से,
इक नयी बूँद फिर चाँद दे जाएगा,

इस तरह से चली बूँद की ज़िन्दगी,
जब जमी तब जमी जब बही तब बही।

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

कृष्ण वियोग

१ 
श्याम गए तो गए मथुरा मथुरा न गयी वृषभानु दुलारी,
कौन सी आन रही मन में वह आन गयी मन से न उतारी,
जाकर हाल न पूँछ सकी किस हाल में है ब्रजधाम बिहारी,
प्यार के बन्धन बांध हमें किस बांध में जाके बँधे बनवारी।
पन्द्रह ही दिन बोल गए इक मास हुए पर लौट ना आए,
भेजती कोई कबूतर जो कि सन्देश यहाँ से वहाँ पहुँचाए,
कौन कमी रही प्यार में जो यदुनंदन प्यार की रीति भुलाए
जो सबको भरमा गये हैं उनको भला कौन वहाँ भरमाए।
कोई नही दिन बीतता है मनमोहन को जब याद ना आए,
काग मयूर बया बगुले बस देखते हैं किस ओर से आए,
आए जो हैं ब्रजभूमि से तो अभी राधिका की छवि देखके आए,
देख उन्हें मन नाच उठे मानो राधिका को ख़ुद देखके आए।

फूल खिले भँवरे लिपटे मकरंद भरी बगिया महकाये,
सावन के दिन भाद्र की रात आषाढ़ की दोपहरी जब आये,
धीर धरो कितना भी भले मन पे पर धीर धरा नहि जाए,
कोई कहीं से नही कहता चलो राधिका है वहाँ नैन बिछाये।
गोकुल के बछड़े बछड़ी बस व्याकुल हैं मथुरा नहि आये,
वृक्ष कदम्ब के वैसे खड़े न झुके न गिरे न खिले मुरझाये,
मौन खड़े गिरिराज वहीं यमुना उसी ओर ही नीर बहाये
भूल गए ब्रज वासी ही या ब्रजवासियों को घनश्याम भुलाये।
राधिका का उन्माद चढ़ा अब और कोई उन्माद नहीं है
राधिका हो न हो राधिका के प्रति मानस में दुर्वाद नही है
राधिका से पहले नहि था कुछ राधिका के कुछ बाद नहीं है ,
याद में राधिका है इतना बिन राधिका के कुछ याद नहीं है,
श्याम बिना नहीं राधिका तो बिन राधिका स्याम नहीं रह पाते,
श्याम में राधा नही रहती यदि श्याम वियोग नहीं सह पाते,
वृक्ष नदी तट पे रहते जलधार के साथ नहीं बह पाते।
भीतर भीतर पीर भरे पर पीर किसी से नहीं कह पाते।
आदि व अन्त अनंत में राधिका मध्य में राधिका की छवि छायी,
अर्ध्य व ऊर्ध्य प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दिशा विदिशा में वही है समायी,
जीत में हार में लाभ में हानि में राधिका राधिका ही दे  दिखायी,
नैन ही राधिका में जा बसे या कि राधिका ही हर ओर से आयी।
फूल कदम्ब के फूल उठे या कि राधिका फूल के फूल हुई है,
है ऋतुराज अनंग प्रसन्न की ये ऋतु ही अनुकूल हुई है।
पाँव रखे जिस ओर जहां उस ओर की चंदन धूल हुई है,
भूल गयी मुझे राधिका या मुझसे ही कोई बड़ी भूल हुई है।

ग़ज़ल

कहानी 
कहानी कुछ बनायी जा रही थी,
कहानी कुछ सुनायी जा रही थी,

खड़ा था दिल के दरवाज़े पे मै पर,
मुझे खिड़की दिखायी जा रही थी।

मै लिखना चाहता था छंद लेकिन,
मुझे ग़ज़लें लिखाई जा रही थी।

जिसे पीना था नयनों का अमिय रस,
उसे मदिरा पिलायी जा रही थी।

बुझाने आग निकला जब शहर की,
मेरी बस्ती जलायी जा जा रही थी।

जहाँ मैं ज़िन्दगी लेने गया था,
वहाँ अर्थी उठायी जा रही थी।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

अपनेपन से कहो

अपनेपन से कहो 
जो है कहना तुम्हें,अपनेपन से कहो 
मै चला जाऊँगा ज़िंदगी से तुम्हारी तुम्हारी क़सम 
अपनेपन से कहो,

पृष्ठ होकर भी हम हाशिए पर रहे,
तुमने पढ़ने से पहले किनारा किया,
तुममें जो था तुम्हारा तुम्हारा रहा,
मुझमे जो था हमारा तुम्हारा किया,
अपने पन से कहो 
याद सारी जला दूँ अभी से तुम्हारी तुम्हारी क़सम,
अपने पन से कहो।

लौट बादल गए फिर से बरसे बिना,
हम थे सावन का उत्सव मानते रहे।
नींद आयी जो नयनों के अधिकार में,
रात भर स्वप्न के शव उठाते रहे ।
अपने पन से कहो 
मोड़ जाऊँगा मुँह आशिक़ी से तुम्हारी,तुम्हारी क़सम।
अपने पन से कहो।

चोट पर चोट लगते हुए एक दिन,
दर्द में डूबकर दर्द मर जाएगा।
चोट दे करके तब हार जाओगे तुम,
वक़्त जब भी मेरा घाव भर जाएगा।

अपने पन से कहो।
जीत जाऊँगा मै दिल्लगी से तुम्हारी तुम्हारी क़सम 
अपनेपन से कहो।

प्रियांशु गजेन्द्र 27 अगस्त 20121

मंगलवार, 22 जून 2021

ओ संविधान के निर्माता

ओ संविधान के निर्माता 
दीनो दुखियों के सुखदाता
दीवानो की बस्ती का दुःख सच सच कहना क्या  दिखा नही ?
या दिखा मगर अनदिखा रहा या दिखा देखकर लिखा नही।
सब न्याय लिखे अन्याय लिखे,
जाने कितने अध्याय लिखे,
समरसता हो हर मानव में,
इसके हित कई उपाय लिखे 

फिर दिल को तोड़ कोई सोए,
कोई उठ उठ रात रात रोए,
असमान दर्द की दुनिया का यह अनुच्छेद क्यों रखा नहीं,
या दिखा मगर …….

सबको समानतम प्यार मिले,
छह छह मौलिक अधिकार मिले,
इक्किसवाँ अनुच्छेद कहता 
सबको जीवन उपहार मिले,

कोई रोता है कोई हँसता है,
कोई जीता है कोई मरता है,
अन्यायी प्रेम कचहरी में जलती क्यों न्यायिक शिखा नही 
या दिखा …..

हो लाल क़िले से उद्बोधन,
पांडव बोलें या दुर्योधन,
हम प्रेम नगर के बाशिंदे,
बस चाह रहे यह संशोधन।

यह भारत भू सृंगार करे,
मानव मानव से प्यार करे,
क्या लिखा अगर नफ़रत वालों ने पाठ प्रेम का सिखा नहीं,
या दिखा ………
Priyanshu Gajendra

गुरुवार, 17 जून 2021

राम अखिलेश्वर

(१)
राम नाम पे सदैव राजनीति ही हुई है त्रेता युग में जो मंथरा ने शुरुआत की ,
रूप बदला तो आए द्वापर में श्याम बन कंस ने वहाँ भी जन्म पूर्व ख़ुराफ़ात की,
मुग़ल पधारे जन्म भूमि पे किए चढ़ाई नीयत बुरी थी किंतु आके मुलाक़ात की,
बात बात में अभी भी राम की है बात किंतु राम जी से ना कभी किसी ने कोई बात की ।
(२)
राम अखिलेश्वर अलौकिक अनादि अन्त रोम रोम राम में रमायी माता जानकी,
जगत पिता हैं रघुनन्दन दुलारे राम जगत जननि मेरी माता जानकी,
यज्ञ के पुनीत हव्य से प्रकट राम जी तो खेत की जुताई की कमाई माता जानकी,
सरयू के नीर में समाए श्रीराम जी तो धरती की कोख में समायी माता जानकी।
(३)
विश्वामित्र जी के तप में तपाए गए राम अग्नि के ताप में तपाई माता जानकी,
सामने रहे तो वे खिली खिली रही सदैव ओझल हुए तो मुरझाई माता जानकी,
दंडक वनों में राक्षसों के बीच सोए राम कंटकों के बीच जाके सोई माता जानकी,
चौदह वर्षों पे लौट आए वनवासी राम वन जो गई तो नहीं आयी माता जानकी।
(४)
आडवाणी जी के रथ पर घुमाए गए राम साथ साथ गई न घुमाई माता जानकी,
सच जो कहूं तो तुझे भाए हैं हमेशा राम फूटी आंख कभी न सुहाई माता जानकी,
त्रेता युग में पराया राम ने किया तो आज कलयुग में भी हैं पराई माता जानकी,
बोल री अयोध्या तुझसे करें गुहार या कि योगी मोदी जी की दें दुहाई माता जानकी।
(५)
राम जी को अपना रही है आज की अयोध्या बोल क्यों न गई अपनाई माता जानकी,
बहू और बेटा एक ही समान होता यदि क्यों नहीं सामान पद पाई माता जानकी,
राम जी की जन्मभूमि जन्मभूमि के हैं राम जनकपुरी से यहां आई माता जानकी,
बहू बहू होती बेटा बेटा जैसा होता हाय बेटा होती होती क्या पराई माता जानकी।