रविवार, 31 मई 2020

एक पल जो हमें भूलता ही न था

एक पल जो हमें भूलता ही न था,
भूल जाएगा यूँ भूलता ही नही।
दूर जाना ही था दूर जाता तो पर 
दूर जाएगा यूँ भूलता ही नहीं।

रह गयी है अयोध्या भरत के बिना 
जानकी के बिना राम वनवास है।
पार्थ को त्याग रण में दिया कृष्ण ने,
शास्त्र बिन व्यर्थ का शस्त्र अभ्यास है।

दुख में दुःख ना उठाता तो दुःख ही ना था
मुस्कुराएगा यूँ भूलता ही नहीं ।

श्याम ने कब कहा था कोई राधिका,
या कि मीरा करे मात्र उनका भजन,
तीर्थ उपवास व्रत अर्चना के बिना,
जिनको रहना था वे देवता थे मगन,

भक्त भगवान की भक्ति की क़ीमतें 
कुछ चुकाएगा यूँ भूलता ही नहीं।

पंछियों से कहा छोड़ आकाश दें,
मछलियों से कहा छोड़ दें वे नदी।
भूत सर पर चढ़ा है नयी चाह का 
ख़ाक में जाएँ रिश्ते व नेकी बदी,

सवैये (लोक की रीति)

आप सुनो 

लोक की रीति में हूँ उलझा मन चाहे बहूँ पै बहा नहिं जाए 
आप सुनो तो कहूँ मन की न सुनो यदि आप कहा नहि जाए,
सांप छछून्दर की गति है न कहूँ तो कहे से रहा नहिं जाए।
बोल किसी का चुभा इतना इतना इतना इतना कि सहा नहि जाए 

रंग लगा गयी गाल पे जो हम चाह के भी तो छुड़ा नहि पाए 
फ़ूल की गंध में लीन रहे बस फ़ूल की गंध चुरा नहि पाए 
हाथ हिला गए आप चले हम चाह के हाथ हिला नहिं पाए 
नैन से दूर गए तुम तो किसी और से नैन मिला नहि पाए 


पत्र पठाए कई सब लौट के आए तुम्हारा पता नही पाए 
पाँव चले कई मील चले पर ठीक कोई रस्ता नहि पाए 
सूरज ही ना मिला ढलता हुआ चाँद  नहीं उगता हुआ पाए 
प्यार किया तुमसे तुमसे पर बात यही कि बता नहि पाए।


आए तो आप बुलाए नही जो बुलाए भी तो हम आ नहि पाए 
जा तो रहे थे कि जाएँ चले जब जाने लगे तब जा नहि पाए 
एक तुम्हीं न मिली मुझको हम और भला अब क्या नहिं पाए 
प्यार मिला दुनिया का हमें हम ही अपनी दुनिया नहि पाए 

प्यार बड़ा महँगा था बाज़ार में और कहीं सस्ता नहि पाए
प्यार किया जिसने उसको हम तो न कभी हँसता हुआ पाए 
बात यही इतनी जितना समझे उतना समझा नहि पाए,
आग में पानी मिले कितना पर पानी को आग कहा नहि जाए,

बाग़ को ताल बता न सके हम ताल को बाग़ बता नहि पाए 
काव्य धरा पर घूम रहे हम काव्य आकाश में जा नहिं पाए 
चाह नही सुनने की जहाँ वहाँ चाह के भी हम गा नहि पाए 
आप बुला न सके मुझको न बुला सके आप तो आ नहि पाए 

राह न यूँ बदलो अपनी हम यूँ नही  तेरी राह में आए,
बाँह न जाने खुली कितनी पर एक तुम्हारी ही बाँह में आए,
थाहते थाहते सिन्धु कई अब नैन के सिन्धु अथाह में आए।
नैन हटे लगा आम की छाँह को छोड़ बबूल की छाँह में आए।


बालपना गुज़रा है अभाव में साहब सेठ नही बन पाए 
और जवान हुए तब रूप शिकारियों ने खूब जाल बिछाये 
चोर मिले चितचोर मिले पर चोरी में जा न सके हैं चुराए 
हाथ तुम्हारे लगे हम वो जो कभी भी किसी के भी हाथ न आये ।

मैं न कभी मिल पाता  तुम्हें मिलवाए गये हैं तभी मिल पाए ।
सत्य यही है कि ईश्वर चाह रहा था तुम्हें मुझसे चहवाये।
चाह ले दो दिल दूर करे वह चाह ले दो बिछड़ों को मिलाए।
चाह उसी की गजेन्द्र जहाँ पर शूल उगे वहाँ फ़ूल खिलाए 

चाह ले राई पहाड़ करे वह चाहे पहाड़ को राई बनाए 
चाहे तो भीख मंगा दे गली गली चाहे तो वी ठकुराई दिलाए 
चाह ले वो दुर्योधन का घर त्याग दे साग विदूर के खाए,
चाह ले तो कुटिया में रहे चाहे स्वर्ण की लंका में आग लगाए।

प्यार की रीति निबाह दो प्यार मिले न मिले यूं निबाहने वाला।
रूप तुम्हारा समन्दर है दिल मेरा समन्दर थाहने वाला।
यौवन भार से देह झुकी इसे चाहिए कोई सम्हालने वाला 
चाह नही तुम्हें आज मेरी कल चाह रहेगी न चाहने वाला।

तुम नहीं हो तो

तुम नही हो तो तुम्हारी याद साथी है 
याद ऐसी जो तुम्हारे बाद साथी है।

मै अकेला कब रहा तुम थे हमारे साथ मन में 
सामने जब थे तो थे नहीं थे तो थे जज्बात मन में, 
प्यार के आगे भला क्या टिक सकेंगी दूरियां भी
कुछ नही रहता तो रहती है तुम्हारी बात मन में। 
मरहमों से क्या गिला आघात साथी है, 
तुम नहीं हो तो तुम्हारी......................।

विरह में जलकर भी हमने बस तुम्हार ताप देखा, 
बस तुम्हें देखा किसी को देखने में पाप देखा 
प्यार में मर मर के जीना कोई क्या दिखलायेगा 
जो भी देखा प्यार करके मैने अपने आप देखा। 
स्वर नहीं तो मौन का संवाद साथी है।
तुम नहीं हो तो तुम्हारी......................।

तन भले है दूर कितना मन मे अब भी चित्र तेरा,
आज इन टेंसू के फूलों ने जिसे फिर फिर उकेरा 
ओ हवा रुक जा तनिक उपहार दे देना उसे कुछ 
स्वांस की खूशबू से खुश हो जाएगा वह मित्र मेरा 
और कहना उम्र भर अवसाद साथी है ।
तुम नही हो तो तुम्हारी याद.......।

जिसको गीत सुनाने

जिसको गीत सुनाने को मै,
रात रात भर भटक रहा हूँ,
पता नही किस राजभवन में 
सुख की नींद सो रही होगी,

हवा उधर से इधर आ रही और उधर भी जाती होगी,
मैने याद किया है जिसको याद उसे भी आती होगी,
जिसकी याद भुलाने खातिर,
हम मथुरा से गये द्वारिका,
पता नहीं किस वृन्दावन में,
वह उम्मीद बो रही होगी।

जाने किसके कुटिल अधर ने रंग अधर का लूटा होगा
कसमसाया होगा कितना पर कंगन अभी न टूटा होगा,
जिस पर रंग चढाने खातिर,
सब सांसें हो गयी होलिका,
पता नही किस आलिंगन में 
वह बकरीद हो रही होगी

जाने किसकी क्रूर उंगलियां खेल रही होंगी अलकों से,
जिन्हें संवारा करते थे हम अपनी इन भीगी पलकों से,
जिसको पास बुलाने खातिर
हम ही खुद से दूर हो गए,
पता नही किस आवाहन में,
सुनकर गीत रो रही होगी।
प्रियान्शु गजेन्द्र

जगमग दिन

जगमग दिन रोशन रहे रात,
घर उतरे तारों की बारात,
बस इतने तक तो रहा साथ आगे पथ एक नही तो क्या?
सारा जग साथ तुम्हारे है बस मैं ही एक नहीं तो क्या?

पर्वत निश्चल रह जाते हैं अक्सर नदियाँ बह जाती हैं,
फूलो का डाली से विछोह गुमसुम बगिया सह जाती है
क्या हुआ कलाई को उनकी कंगन स्वीकार नही मेरे,
क्या हुआ अगर अरमानों की चूड़ियाँ रखी रह जाती हैं?
अब तक तो सब स्वीकार किया,
इतने दिन तक तो प्यार दिया,
माटी तो चंदन हुई अगर होगा अभिषेक नही तो क्या ?
सारा जग .............................................?

इतने दिन प्यार दिया तुमने है बहुत बहुत आभार प्रिये,
मधुमासों को मिलना ही था यह पतझर का उपहार प्रिये,
नीरस पतझर के हाथों का जीवन भी एक खिलौना था,
दुख है इन घायल हाथों से मैं कर न सका शृंगार प्रिये,
नभ से तारे मैं ला सका,
इसलिए तुम्हें मैं पा न सका,
माथा तो लाए चौखट तक यदि पाए टेक नही तो क्या ?
सारा जग .............................................?

अपना सब कुछ देकर बैठे फिर भी तुमको हम पा न सके,
तुम गीत समय का थी तुमको नीरस अधरों पर ला न सके,
संसार भले कुछ भी समझे जो समझे उसे समझने दो,
जो तुम समझे वह था ही नही जो था वह हम समझा न सके।
जो था वह था अब जाने दो,
अब स्वर्णिम संध्या आने दो,
थकती आँखें बुझती आँखें पाई यदि देख नहीं तो क्या ?
सारा जग ..........….....................................?

कब रची इतिहास

किस तरह गाऊँ समय की वेदनाएँ,
मर चुकी हों जब सभी संवेदनाएं।
कब लिखा इतिहास ने उनकी कहानी,
खो गयी जिनकी निशानी,

खेल लहरों से भँवर में खो गए,
देश की नौका चलाकर सो गए,
वन जो खाण्डव इन्द्रप्रस्थी बन गए तो 
शक्तिशाली कौरवों के हो गये।

पांडवों को है उमर वन में बितानी।
खो गयी जिनकी निशानी।

भाग्य से यूँ कर्म की दूरी मिली ,
स्वर्ग रच डाला न मज़दूरी मिली,
मौत भी आयी तो तब जब मर चुके थे,
ज़िन्दगी को ऐसी मजबूरी मिली।

राजपथ पर है लहू नयनों में पानी।
खो गयी जिनकी निशानी।

घोषणाएँ मार्ग में सोती मिली,
मर गयी जब भूख तब रोटी मिली,
देह जब निर्वस्त्र होकर गिर गयी तो,
राजधानी से नयी धोती मिली।

हो गए भिक्षुक समय के साथ दानी,
खो गयी जिनकी निशानी ।