सोमवार, 31 दिसंबर 2018

नया साल फिर याद पुरानी

नया साल फिर याद पुरानी
प्यार कहो या फिर नादानी
मैंने फिर एक साल पुराना चित्र हृदय में बना लिया है।
बिना तुम्हारे नया साल फिर किसी तरह से मना लिया है।

डगमग दृष्टि तुम्हारी लेकरके आँगन में चौक पुराए,
अधरों से कुछ लाली लेकर उन पर थोड़े रंग चढ़ाए,
गोरा रंग वदन से लेकर थोड़ी धूप खिलायी मैंने ,
धूप तुम्हारी पाकर गमले वाले फ़ूल बहुत मुस्काए,

मन से सबकुछ किया मगर मन ही मन सब अनमना किया है।
बिना तुम्हारे ..........................................।

तुम बोलो अपने बारे में कैसा साल तुम्हारा बीता
इस दौलत के खुले युद्ध में तुमने क्या हारा क्या जीता,
जीवन के रंगीन सफ़र में मिला कौन किसका संग छूटा
भरा तुम्हारा दौलत का घट या फिर अभी रह गया रीता,

किसको कितना सुना और किसको कितना अनसुना किया है
बिना तुम्हारे ..........………........................।

ईश्वर करे तुम्हारे यश वैभव में चार चाँद लग जाएँ
स्तुति करें देवता द्वारे देवपुत्रियाँ मंगल गाएँ ,
जो कुछ अब तक नही मिला है ईश्वर दे दे नए वर्ष में,
आप हर्ष से वर्ष वर्ष भर जीवन में नव वर्ष मनाएँ ।

फल तुमको मिल जाएँ मैंने अब तक आराधना किया है
बिना तुम्हारे .................................................।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

एक फूल गिरा फिर अटल जी को समर्पित

स्वर्गीय अटल जी को समर्पित पढ़ें और शेयर करें

एक फूल गिरा फिर डाली से,
सारा उपवन हो गया मौन,
भँवरे तितली फिर हैं उदास,
गीतों की कड़ियाँ टूट गयी,
स्वर में है सुनी दीर्घ स्वांस,
सहमी सहमी हर कली आज,
कुछ डरी डरी है माली से।
एक फूल............
पत्तों के नम हो गए नयन,
शूलों को भी रोना आया,
उत्सवमय सारा स्वर्गलोक ,
एक दुलहन का गौना आया,
कैसी है रीति विधाता की,
कैसा है ईश्वर का विधान,
सारी धरती जो नाप गया,
उसके हिस्से कोना आया,
जाने फिर कौन कहाँ छूटे,
डर लगता अब रखवाली से,
एक फूल.......................।
हम दिन दिन रचते जाते हैं,
अपने सपनों के शीश महल,
बच्चे बन खेल खिलौने से,
कुछ पल की खातिर गये बहल,।
कुछ पल तक सारा खेल रहा,
कुछ पल हम राजा रानी थे,
कुछ पल में सब कुछ नष्ट हुआ,
कुछ पल में सब कुछ गया बदल,
कुछ पल का नाता जीवन का
था स्वांसों की मतवाली से,
एक फूल.....................।
तुम अटल तपस्वी जीवन के,
तुमसे मेरा सम्मान बढ़ा,
तुमसे रजनी हो गयी अस्त,
फिर पूरब में दिनमान चढ़ा,
वीरता पराक्रम पौरुष के,
हे तेजपुन्ज हे महापुरुष,
तेरी छाया में भारत ने,
था कारगिल में जयगान पढ़ा।
तुम इक इतिहास रचयिता थे
जग में शोणित की लाली से
एक फूल .........................।
प्रियांशु गजेन्द्र

ग़ज़ल

तुम क्या जानो मन पर इतना बोझा कैसे ढो लेते हैं
जब एकांत समय मिलता है चुपके चुपके रो लेते हैं,

मेरी आँख बहुत छोटी थी तुमने सपने बड़े दिखाए ,
अब आँखों में राजमहल ले फुटपाथों पर सो लेते हैं।

पागल है पपिहा वर्षों से स्वाति बूँद पर भटक रहा,
चतुर वही हैं हाथ जो हर बहती गंगा में धो लेते हैं

हम किसान के बेटे साहब दुःख सह लेने की आदत है,
हम भूखे रहकर भी जग की ख़ातिर फ़सलें बो लेते हैं

मोम कह रहा था वह ख़ुद को पत्थर था पत्थर निकला,
समझ न आया पत्थर कैसे मोम सरीखे हो लेते हैं।

{2}
वफ़ा करी है करी तो ऐसी तुम्हारे बिन भी रहे तुम्हारे,
लड़े बहुत अपने आप से हम मगर जो हारे तुम्हीं से हारे।

नशा नयन का नहीं है मुझको अभी मैं लौटा हूँ मयकदे से,
मुझे कोई अब गली में उनके दीवाना कहकरके न पुकारे।

जो दिल में होते उतार देते कोई भले कुछ भी कहता लेकिन,
मेरा ही दिल जब बसा है उनमें भला मेरा दिल किसे उतारे

जनक ने देखा श्री राम जी को प्रभू ने देखा विशाल धनुहा,
विषम परिस्थिति है जानकी की सजल नयन से किधर निहारे,

तुम्हें तमन्ना थी राम बनकर कभी मैं आऊँ तुम्हारे दिल में,
न बेर तुमने रखे हैं घर पर न फ़ूल फेंके न पथ बुहारे।

भँवर में ले चल रे नाव माँझी तमाशा देखूँ ज़रा लहर का,
किनारे ही चाहते हैं मुझसे मैं फिर न लौटूँ कभी किनारे।

{3}

बिना बताए जहाँ गये तुम वहाँ भी अपना ख़याल रखना,
तुम्हारे बिन अब मैं कुछ नही हूँ मेरा न कोई मलाल रखना।

अभी समय ने मुझे मिटाया समय ही तुमसे हिसाब लेगा,
हमारी चाहत के आँकड़ों को कहीं ज़हन में सम्हाल रखना।

जो फूल से भी कभी थे नाजुक कलेजा पत्थर हुआ तो कैसे?
खुदा  मिले तो मैं चाहता हूं उसी के आगे सवाल रखना।

मिलेंगे पत्थर कई तरह के तुम्हारे कदमों को छील देंगे,
डगर मोहब्बत की अब नई है नए चलन की उछाल रखना।

ग़ज़ल

हम बिखरकर भी सम्हालेंगे तुम्हें विश्वास रखिए,
किंतु सारी उम्र मुझसे दूर अपनी प्यास रखिए ।
भीख माँगूँगा न किरणो की भले घर फूँक लूँगा,
चाँद तेरा चाँद है तो चाँद अपने पास रखिए ।
क्या कहा तुमको किसी से प्यार होता जा रहा
एहतियातन कह रहा हूँ जेब में सल्फास रखिए ।
कौन कितना प्यार तुमसे कर रहा है जानना हो
एक दिन कुछ देर यूँ ही बंद अपनी स्वाँस रखिए ।
याद तुम आती हो तो आ करके जाती ही नही हो,
कमसे कम सप्ताह भर में एक दिनअवकाश रखिए।

ग़ज़ल

तुम पर आँच न आए दुःख की अपने सारे ग़म पीते हैं
गर्मी  भर व्हिस्की पीते हैं फिर जाड़े भर रम पीते हैं।
जब से तुमसे नैन मिले हैं तबसे हालत सुधर गयी कुछ,
कभी कभी पीते हैं लेकिन अब पहले से कम पीते हैं।
तरह तरह से नाम बदलकर पीते रहते पीने वाले,
हम गंगा जल मान रहे हैं वे आबे जमजम पीते हैं।
दिल के हर कोने में मैंने इतने चित्र बनाए उनके,
याद बहुत जब आने लगती आँखों से अल्बम पीते हैं।
जो सागर पीकर बैठे हैं वे हैं इज़्ज़तदार शहर के,
चोर उचक्के वे कहलाते जो थोड़ी शबनम पीते हैं,
उनको सौंप दिया मयखाना जिनको इल्म नही पीने का,
प्याले धन्य हुआ करते हैं जिन प्यालों में हम पीते हैं।

क्या अकेलापन क्या मेला

क्या अकेलापन क्या मेला
क्या मिलन क्या विरह वेला
भाग्य ने जब खेल खेला ,
तुम भी खेलो खेलकर फिर छोड़ देना
जब तुम्हारा मन कहे मुँह मोड़ लेना ।

प्यार का नाता नया हो या पुराना,
तुम विवशता में कभी भी मत निभाना,
आँसुओं का डर तुम्हें जब भी सताए
छोड़ देना आँख में काजल लगाना ,
तुम निभाना अपने ढंग से प्यार अपना,
प्यार के मारों से तुम मत होड़ लेना ,

जब तुम्हारा  .....

आप अब पछुआ हवा में बह रही हैं,
प्यार अमृत है इसे विष कह रही हैं,
कंगनो ने बाँध रखा चूड़ियों को
चूड़ियाँ कंगन से बन्धकर रह रही हैं
पर कलाई भार यदि लगने लगे तो
तुम हमारे कंगनो को तोड़ लेना ।
जब तुम्हारा .........   

नाव लहरों पर है तुम चाहो डुबा दो,
दर्द जो सोया अभी है फिर जगा दो ,
आरती का थाल लाया याचना में ,
देवता हक़ है तुम्हें ठोकर लगा दो।
प्यार के मारों की जब सूची बनाना
एक मेरा नाम उसमें जोड़ लेना ।
जब तुम्हारा ............

देखता रह गया सबको

देखता रह गया  सबको जाते हुए,
किंतु मुझको किसी ने निहारा नही ।
हर किसी के लिए होंठ बोले मगर,
मुझको फिर भी किसी ने पुकारा नही।

मान देकरके अपमान पाते रहे,
प्यार देकरके पाते रहे गालियाँ,
गीत मन का सुना ही नही आपने ,
भूमिका पर ही बजती रही तालियाँ।
हम तो सबके लिए कुछ ना कुछ थे मगर
कोई अब तक हुआ क्यों हमारा नही।
हर किसी..............................।

दूर जब तक रहे पास चाहा गया,
पास आए तो चाही गयी दूरियाँ,
त्याग राधा का जग में सराहा गया,
कोई समझा क्या मोहन की मजबूरियाँ।
जब थे सम्हले तो बैसाखियाँ भेंट की,
लड़खड़ाए तो कोई सहारा नही,
हर किसी के लिए .......................।

दिल में नफ़रत भरे हो हमारे लिए,
मैं वो नफ़रत मिटाना नही चाहता,
मेरा घर फूँकने वाले बदले में सुन,
मैं तेरा घर जलाना नही चाहता।
मेरी नज़रों से ख़ुद ही उतर तुम गये
मैंने तुमको नज़र से उतारा नही।
हर किसी के............               ....।

शनिवार, 30 जून 2018

जिसको गीत सुनाने खातिर

जिसको गीत सुनाने को मै,
रात रात भर भटक रहा हूँ,
पता नही किस राजभवन में
सुख की नींद सो रही होगी,

हवा उधर से इधर आ रही और उधर भी जाती होगी,
मैने याद किया है जिसको याद उसे भी आती होगी,
जिसकी याद भुलाने खातिर,
हम मथुरा से गये द्वारिका,
पता नहीं किस वृन्दावन में,
वह उम्मीद बो रही होगी।

जाने किसके कुटिल अधर ने रंग अधर का लूटा होगा
कसमसाया होगा कितना पर कंगन अभी न टूटा होगा,
जिस पर रंग चढाने खातिर,
सब सांसें हो गयी होलिका,
पता नही किस आलिंगन में
वह बकरीद हो रही होगी

जाने किसकी क्रूर उंगलियां खेल रही होंगी अलकों से,
जिन्हें संवारा करते थे हम अपनी इन भीगी पलकों से,
जिसको पास बुलाने खातिर
हम ही खुद से दूर हो गए,
पता नही किस आवाहन में,
सुनकर गीत रो रही होगी।
प्रियान्शु गजेन्द्र


ओ अभागी आत्मा के प्यार

छोड़ आए एक अनजानी गली में,
फूल में भँवरे में उपवन में कली में
ओ अभागी आत्मा के प्यार ,
तुम क्यों लौट आये।
फिर हुआ है मन बहुत लाचार,
तुम क्यों लौट आये।

पलक पर आंसू अभी सूखे नही थे,
उँगलियाँ भूली नहीं कोमल छुवन को।
देवता नैवेद्य पाकर तृप्त हैं सब,
और तुम प्रस्तुत खड़े फिर से हवन को,
कँपकँपाती श्वांस में घायल अधर से,
फिर न हो पायेगा मंत्रोच्चार,
तुम क्यों लौट आये।

बस अभी कुछ देर पहले चोट खाकर,
हम गिरे थे आज भी सम्हले नहीं है,
कल अभी जिनपर हुए थे पांव घायल,
प्यार के वे पथ अभी बदले नहीं है।
हांफती पतवार उफनाये भँवर से,
फिर न हो पाएगी नैया पार,
तुम क्यों लौट आये।

तार वीणा के सभी उलझे हुए हैं,
चाहते हो तुम अभी संगीत सुनना,
हार बैठा है जो सारे दांव तुम पर,
तुम उसी से चाहते हो जीत चुनना।
लरजते दो होंठ दुखती उंगलियों से,
फिर न हो पायेगा अब श्रृंगार,
तुम क्यों लौट आये।
प्रियान्शु गजेन्द्र





बुधवार, 27 जून 2018

कहो युधिष्ठिर

शरशैय्या पर लगे पूंछने भीष्म पितामह
कहो युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ कैसा लगता है।
कहो युधिष्ठिर।

पतझर सा सूना सूना लगता है उपवन,
या फिर गीत सुनाती हैं अलमस्त हवाएं,
छमछम नूपुर बजते रहते राजभवन में
या फिर करती हैं विलाप व्याकुल विधवाएं।
कहो युधिष्ठिर कौरव कुल के लाल रक्त से,
धुला हुआ यह राजवस्त्र कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर।

धर्म युद्ध है धर्मराज यह कहकर तुमने,
कौरव के समान ही की है भागीदारी,
धर्मयुद्ध था या अधर्म यह ईश्वर जाने,
पर समानतम थी दोनों की हिस्सेदारी।
कहो युधिष्ठिर धर्म युद्ध या केवल हठ में,
मानवता हो गयी ध्वस्त कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर।

गली गली में लाखों प्रश्न खड़े हैं लेकिन,
प्रश्न सभी यदि युद्धों से ही हल हो जाते,
तो राधा के नयन प्रलय के आंसू लाते,
और सुदामा के तंदुल असफल हो जाते,
कहो युधिष्ठिर यह कैसा है धर्म जगत का ,
जीवन ही हो रहा नष्ट कैसा लगता है ।
कहो युधिष्ठिर

धर्मराज धर्मावतार सत्पथ अनुगामी,
तुमसे बढ़कर कौन जानता मर्म हमारा,
धर्म अगर संकट बन जाए राष्ट्रधर्म पर,
तो अधर्म के साथ रहूं था धर्म हमारा।
कहो युधिष्ठिर क्या था मेरा धर्म कि जिससे
जीवन था सब अस्त व्यस्त कैसा लगता है?
कहो युधिष्ठिर

क्या अब कर्ण नहीं बहते हैं  गंगाजल में,
क्या निश्चिन्त हो गयी जग में कुन्ती मायें,
सर्वनाश हो गए कहो कुल दुशाशनों के,
या लुटती रहती हैं अब भी द्रुपद सुताएँ।
कहो युधिष्ठिर भोर हो गयी क्या भारत में,
या सूरज हो रहा अस्त कैसा लगता है?
कहो यधिष्ठिर?

प्रियान्शु गजेन्द्र

किसको मन का गीत सुनाऊँ

तुमने खुद को मौन रख लिया
मैंने ढाल लिया गीतों में,
कहो प्रिये युग युग की संचित
मन की पीर कहाँ बरसाउँ,
किसको मन का गीत सुनाऊँ

आग लगी है चन्दन वन में,भीतर भीतर राख हो रहा,
पँछी छोड़ गए हैं जिसको जीवन सूनी शाख हो रहा,
मधुऋतु हुई तुम्हारी साथी
पतझर मेरे साथ चल पड़ा
कहो प्रिये चुभते शूलों को
कैसे कोमल फूल बनाऊं।

दिन यादों का बोझ सम्हाले रात रात भर सपना ढोएं,
तन को दो ही नयन मिले हैं रोएं भी तो कितना रोएं।
तुमने भगवद्गीता पढ़ ली,
कुरुक्षेत्र में भ्रमित खड़ा मै,
कहो प्रिये सम्मुख सब अपने,
किस पर अपना तीर चलाऊं।

अन्धकार फिर जीत न जाये,तम से अमर उजाला हारे,
थक न जाय यौवन का साकी,अक्षय प्रेम का प्याला हारे,
जनम जनम के अमिट प्यार की,
अब तक लाज बचायी लेकिन,
कहो प्रिये किस किस दर्पण से,
इस चेहरे का रंग छुपाऊं।
किसको मन का गीत सुनाऊँ।
प्रियान्शु गजेन्द्र





गुरुवार, 22 मार्च 2018

तुम भी थोड़ा रोये क्या

हमने तो बादल बरसाए
तुम भी थोड़ा रोये क्या?
कुछ सुलझे कुछ अनसुलझे हैं
प्रश्न कई लेकर लौटा हूँ,
तुमको पाने की चाहत में
मै खुद को देकर लौटा हूँ,
हमने धोया चेहरा अपना
अधर भी तुमने धोए क्या?

मुझमे तुम हो इससे तुमको
मेरी सूरत प्यारी लगती
अपनी रंगत अंधे को भी
सारे जग से न्यारी लगती,
हम सब कुछ खोकर लौटे हैं,
क्या तुम भी कुछ खोए क्या?

सांसें क्या हैं चन्द हवाओं के
टुकड़ों का आना जाना,
तुम खुद ही भगवद्गीता हो
तुमको दर्शन क्या समझाना,
हम सुलझे थे उलझ गए हैं,
तुम उलझन सुलझाए क्या?
प्रियान्शु गजेन्द्र

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

न वह मुझसे बोली

सुबह शाम हर दोपहर नाचती थी,
घड़ी दो घड़ी भर ठहर नाचती थी,
लहरकर लहरकर लहर नाचती थी
न वह नाच हारी न मै देख हारा,
न वह मुझसे बोली न मैंने पुकारा।

कोई थम गया है कोई अब चला है
कहीं रौशनी है कहीं जलजला है
नदी हँस रही हँस रहा है समन्दर,
उसे क्या पता एक हिमालय गला है।
जलाते जलाते जली जा रही थी,
नियति के करों से छली जा रही थी
प्रणय गीत गाती चली जा रही थी।
न वह चलके हारी न मै थमके हारा
न वह मुझसे..........

कई फूल टूटे खिले भी नही थे
कई तो भ्रमर से मिले भी नही थे
नहीं बोल पाये ये दीवानगी थी,
वरन होंठ मेरे सिले भी नहीं थे
ह्रदय में अधर की तपन जल रही है
पुरानी प्रथा है प्रथा चल रही है
मगर प्यार की हर कसम पल रही है
न वह श्वांस हारी न मै प्राण हारा।
न वह मुझसे बोली..................।

अभी कुछ कदम ही गयी होगी आगे,
उसे रोक भी ना सके तुम अभागे,
कोई भोर आये कोई सूर्य आये,
किरण क्या करे भाग ही यदि न जागे,
हृदय ने कहे जो हृदय ने सुनाये,
समय के अधर ने वही गीत गाये,
रहे उसके दिल में भी रहकर पराये,
न वह मन से उतरी न मैंने उतारा।
न वह मुझसे..........................!

प्रियांशु गजेन्द्र