गुरुवार, 2 नवंबर 2017

मुक्तक (चिट्ठी)

सुबह लिख लिखके लायेगी सुहानी शाम की चिट्ठी,
किसी मीरा के मोहन की सिया के राम की चिट्ठी,
किसी ना तो किसी दिन डाकिया देगा मुझे आकर,
तुम्हारे हाथ से लिक्खी हमारे नाम की चिट्ठी।

नयन को पढ़ने दो अपने अधर के जाम की चिट्ठी,
वदन का रंग है या रंग लाई  काम की चिट्ठी,
भले सोने के अक्षर से लिख़ी है रूप की गीता,
न पढ़ पाया कोई अर्जुन तो फिर किस काम की चिट्ठी,

न पढ़ना तुम कभी जग के महासंग्राम की चिट्ठी,
पढ़ो यदि पढ़ सको युद्धों के दुष्परिणाम की चिट्ठी
थी जिन हाथों में तलवारें मिले वे हाथ मिट्टी में,
सिकन्दर की पढ़ो चाहे पढ़ो सद्दाम की चिट्ठी।

पढ़ो तो बस पढ़ो तुम प्यार के परिणाम की चिट्ठी
न गीता बाइबिल कुरआन ना गुरुग्राम  की चिट्ठी,
जो दुनिया पढ़ ही पाती मंदिरों मस्जिद की भाषा तो,
लहू से क्यों लिखी जाती अयोध्या धाम की चिट्ठी।

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

एक मुट्ठी में नफरत एक में प्यार

एक मुट्ठी में नफरत एक में प्यार
जाने किस दुनिया से लाये,
यूँ समझो दो दीप जलाए,
एक से जगमग सारी धरती एक से जग अंधियार।

एक ओर पूरा मयखाना एक ओर दी प्यास,
तुमको काम कलाएं देकर मुझे दिया सन्यास,
तुम जबसे हो गए पराये,
हमने भी दो गीत बनाये,
एक अधर से मरुथल गाया एक से मलय बयार
एक मुट्ठी........................।

केसर के पौधों में आये हैं पत्थर के फूल,
माली ने बरगद रोपा था लेकिन उगे बबूल।
कली कली का खून बहाये ,
यूँ समझो डोली लुटवाये,
एक साथ मिलकर आये हैं डाकू और कहाँर।
एक मुट्ठी..............…...

तुम्हे अधर की हंसी मिली है मुझे नयन में नीर,
इस दिल्ली में राजघाट के पीछे है कश्मीर ,
भाग्य लेख ना मिटे मिटाए
दुःख है वे खत गये जलाए।
जिनमें  जुम्मन की चौखट पर अलगू का दरबार।
एक मुट्ठी में...…...............।

मंगलवार, 16 मई 2017

तुम्हारे गीत गाऊंगा

तुम्हारे गीत गाऊंगा।
प्यार के हर एक चलन तक,
आंकड़ों से आकलन तक,
आज से अपने मिलन तक पथ सजाऊंगा,
तुम्हारे........
भीड़ में नज़रें चुराना,
धीरे धीरे गीत गाना,
और फिर कुछ दूर जाकर,
पीछे मुड़कर मुस्कुराना,
प्यार के जितने भी ढंग हैं, सब निभाउंगा।
तुम्हारे.......
देंह को पर्वत लिखूंगा,
मन को तप में रत लिखूंगा,
फिर भी यदि लआये नहीं तो,
आंसुओं से खत लिखूंगा।
नाम लिखकर नाव कागज की बहाऊंगा।
तुम्हारे.............
रात के पिछले पहर तक,
भोर से फिर दोपहर तक,
कब रहे हम दूर तुमसे,
आदि से अंतिम सफर तक,
साथ आया साथ रहकर साथ जाऊंगा।
तुम्हारे गीत गाऊंगा।

प्रियांशु गजेन्द्र

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

तुम मेरा प्यार हो



मेरा प्यार हो
बादलों से चली,
सीप में तुम ढ़ली,
ओ विधाता के आँचल की सुन्दर कली-
तुम विधाता के सपनों का साकार हो। आके कह दो की तुम बस मेरा प्यार हो।।

देखकर तुम हमें मुस्कुराओ कभी।
आके सपनों में ही घूम जाओं कभी।।
झरने के पास या पेंड़ की छाव में।
गीत संग-संग मेरे गुनगुनों कभी।।
आज मिलकरके हम एक आकार हों-
आके कह दो की तुम बस मेरा प्यार हो।

साँझ पुरवाई संग घर से निकलों कभी।
पथ पर पलके बिछये मिलूँगा यहीं।।
यदि कठिन सा लगे मुझको पहचानना।
राग दुख से भरा छेड़ देना वहीं
पास आ जाऊँगा में निराकार हो।
आके कह दो की तुम बस मेरा प्यार हो।।

सप्त संगीत स्वर तेरी साँसो में है।
सृष्टि का प्रश्न हर तेरी आँखों में है।।
चाँद सूरज निकलने का क्या फायदा।
धूप वा छाँव तो तेरी बाहों में है।।
प्रात हो साँझ हो प्राण आधार हो।
आके कह दो की तुम बस मेरा प्यार हो।

रहती है जहां माँ

माँ
धरती जहाँ की स्वर्ग है भगवान आसमाँ।
रहती हैं जहाँ माँ।।
आँगन में जहाँ साँझ उतर आती जोंधइया।
गोबर से लीपी भूमि पे इठलाते कन्हैया।।
आता है जहाँ बाग में मधुमास या पतझण।
खुशियाँ जहाँ सवार हो बादल की नाव पर।।
धरती की कोर-कोर में भर जाती हरितिमा।
रहती हैं जहाँ माँ।।

लेकर सहारा फूस का लौकी चढ़ी हुई।
लगता है ज्यों इंसान की नीयत बढ़ी हुई।।
चंदा पर सूत काटती है आज भी नानी।
अम्मा की कथाओं में है परियों की कहांनी।।
दादा है कालीदास व दादी विद्योतमा।
रहती हैं जहाँ माँ।।

देवोपम पटेल

देवोपम पटेल
भारमाता के आँचल में चमका एक सितारा था।
बल्लभ भाई नाम था जिसका काल भी उससे हारा था।।
अठ्ठारह सौ पिचहत्तर यह भारत भुला नहीं सकता।
जुल्मी अंग्रेजी गाथाएँ, दिल में सुला नहीं सकता।।
अंधकार था दिग दिगन्त तक, सूरज नजर न आता था।
जनता बेबस चीख रही थी, दर्द सहा न जाता था।।
इंकलाब कहने वालों को, काला पानी होता था।
लूट मची थी सत्ता में, कानून यहाँ का सोता था।।
तब ब्रह्मा ने विष्णु रुप देवोपम रूप उतारा था।
बल्लभ भाई नाम था जिसका काल भी उससे हारा था।।

खेड़ा जनपद में अत्याचारों का पारावार न था।
भारत के भूभाग में इतना  अन्य कहीं कर भार न था।।
टूट रही थी बिजली बिन बादल, जब यहाँ किसानों पर।
बरस रही थी आँखे जब, अपने स्वर्णिम अरमानों पर।
अंग्रेजी कुत्ते बेबस बेचारों, पर गुर्राते थे।
नंगे भूखे बच्चे घोड़ों के, रव पर थर्राते थे।।
सत्याग्रह तूफान लिए तब, लौह पुरुष पगधारा था।
बल्लभ भाई नाम था जिसका काल भी उससे हारा था।।

भारत को आजादी देकर गोरे चले गए लेकिन।
मीर मोहम्मद मनमोहन का रिश्ता तोड़ गए लेकिन।
गोरी चमड़ी वालों ने जब काला -काला विष बोया।
भारत माँ का हर सपूत, अपनी आँखे भर-भर रोया।।
गॉव गली की रेत से खूनी बारुदों का रिश्ता था।
हर निरीह हिन्दू या मुस्लिम जब दंगों मे पिसता था।।
तब सरदार पटेल वहाँ बन शान्ति दूत अवतारा था।
बल्लभ भाई नाम था जिसका काल भी उससे हारा था।।

सावन भादों की की अंधियारी, राते रोक नहीं पायीं।
रेगिस्तानी लू लपटें भी, उनको टोंक नहीं पायीं।
तोपों की आवाज से लड़ती, हिन्दुस्तानी चीखें थी।
दिल में थे राणा प्रताप, राणा प्रताप की सीखें थी।
धूल भरी आँधी का भी, था जिसने तब रुख मेड़ दिया।
जन-गण-मन के शब्दसार में, अधिनायक था जोड़ दिया।।
दीनों का जो दास दुखी, जनता का एक सहारा था।
बल्लभ भाई नाम था जिसका काल भी उससे हारा था।।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

नदिया धीरे बहो

कागज की यह नाव मेरी इस तट से उस तट जाने दो,
नदिया धीरे बहो संदिशा प्रियतम तक पहुंचाने दो।

तुम्हें नही मालूम नाव मेंरी पहली चिट्ठी है,
दिल की एक आहट है इसमें कुछ मीठी कुछ खट्टी है,
इसमें हैं खुशियो के आंसू होंठो की मुस्काने हैं,
विरह लदा है तनहाई है इस दुनिया के ताने हैं
विरहानल से झुलसे तँ को बैठ कहीं बतलाने दो
नदिया धीरे बहो संदेशा प्रियतम...............।

मंदिर की सीढ़ियां लिखी हैं संग उनकी फरियाद लिखी,
भीड़ लिखी है तनहाई है और किसी की याद लिखी।
खुशियों के कुछ शहर लिखे हैं और दुखों के गांव लिखे,
और महावर रचे हुए दो छम छम करते पांव लिखे।
धूप छाँव को इस बगिया में बैठ कहीं बतलाने दो,
नदिया धीरे बहो संदेशा........................।

बालों का गजरा है इसमें दो नयनों का काजल है,
बिंदिया कुमकुम रोली कंगन घुंघरू वाली पायल है
नौका में श्रृंगार भरा है चुनरी रेशम वाली है,
केसर की कुछ गन्ध रखी है कुछ अधरों की लाली है
मेरे प्यार की मेहँदी उनके हाथों में चढ़ जाने दो।
नदिया धीरे बहो संदेशा प्रियतम....................।

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

यहाँ न कोई राजा है यहां न कोई रानी है।

रहते थे रहते हैं रहेंगे राजा रंक फ़कीर,
अनुपम है यह प्रेम नगर जहाँ लाती है तकदीर।
ढाई आखर पढ़े कबीरा मीरा यहां दीवानी है,
यहां न कोई राजा है, यहाँ न कोई रानी है,

यहां घरों में द्वार नही हैं सब सबमे रहते हैं,
धूप छांव कुछ भी मुश्किल हो सब मिलकर सहते हैं,
यहां सिकन्दर झुक जाते हैं,
                     थम जाती शमशीर,
धन दौलत पीछे रह जाते
                       लुट जाती जागीर,
लुट जाता ईमान धरम सब लुटती यहां जवानी है,
यहां न कोई राजा है यहां न कोई रानी है।

बारूदों को बर्फ बना दे प्यार हिमालय जैसा है,
इसकी कीमत वह क्या जाने जिसकी कीमत पैसा है,
इस दुनिया का किशन कन्हैया,
                       बनकर एक अहीर,
दही चुराये मटकी फोड़े
                         कभी बढाये चीर।
शबरी के बेरों में रघुवर ढूंढें प्रेम निशानी है,
यहां न कोई राजा है यहां न कोई रानी है।

रोक सको तो रोक लो आकर दुनियावी सम्राटों,
प्यार की गंगा बह निकली है पाट सको तो पाटो,
प्यार में पर्वत रोते हैं,
                     नदियां ले जाती नीर,
सागर से जाकर मिलती हैं,
                          जयों रांझे से हीर
ताजमहल को भले मिटा दो मिटे न प्रेम कहानी है,
यहाँ न कोई राजा है यहाँ न कोई रानी है।

धर्मग्रन्थ में सार न ढूंढो मन्दिर मस्जिद में ताला,
आओ पण्डित मुल्ला खोलें प्यार की प्यारी मधुशाला,
यह दुनिया मयकश हो जाए,
                         मधु हो सारा नीर,
पीकर बहक उठे हर कोई,
                           उठे प्यार की पीर
मन्त्र प्यार के पढ़ो कहो अब हम सब हिंदुस्तानी हैं।
यहां न कोई राजा है यहां न कोई रानी है

धीरे -धीरे कोई आया

मेरे नयनों के छोटे गांव में
पलकों की शीतल सी छांव में
मन का पपीहा पिया-पिया
अधरों से रहा पुकार,
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।

संगमरमर देंह-देंह में
   फूलों सी कोमलता है,
       हिले ह्रदय पर हार-हार से,
            कुछ-कुछ ऐसा लगता है,
ज्यो ताजमहल के गुम्बद पर उतरा है इंद्रधनुष कोई,
रंग-रंग कर अपने रंग-रंग में,
                        तेरा अंग-अंग रहा सँवार,
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मन्दिर के द्वार।

गंगा के तट पर रहकर मै,
   रेती सा प्यासा-प्यासा हूँ,
      मन उड़े गगन में रॉकेट सा ,
           तन से जैसे मै नासा हूँ,
करता है अनुसंधान ह्रदय ज्यों चाँद पे ढूंढ़े जग पानी,
  सपनों में चित्र भेजते हैं ,
                       बनकर दो नयन रडार
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।

जितना हमसे जाती हो दूर ,
        उतना मिट जाता है सुकून,
            जैसे आषाढ़ का मै किसान हूँ
                   तुम लगती हो मानसून
आते ही हरी भरी होती जाते बंजर हो जाती है
इस दिल की धरती की लगती तुम
                               पतझर और बहार।
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।

बुधवार, 4 जनवरी 2017

फक्कड़ हूँ मनमौजी मैं कविताएं लिखता हूँ


कहते हैं कुछ लोग मुझे यह निरा निकम्मा कायर है
कुछ कहते हैं पागल है तो कुछ कहते हैं शायर है

मैं आवारा कलम का मारा सपनों का सौदागर हूँ
दुनिया में विखराता मोती पर मैं रीती गागर हूँ
             पत्थर के सीनें पर अमर कथाएं लिखता हूँ
             फक्कड़ हूँ मनमौजी मैं कविताएं लिखता हूँ

लिखता हूँ मैं उनके आंसू जिनका नहीं कोई अपना
लंबी लंबी रातों को तड़पाता है जिनको सपना
जिनके दिलवर दिल में ही रहकर दिल को ही तोड़ गए
जो अपनों की जीवन नौका बीच भंवर में छोड़ गए
          उन घायल प्राणों को लाख दुवाएं लिखता हूँ
          फक्कड़ हूँ...............।

फटे हुए कुर्ते में गर्मी बीती वर्षा शीत गया
पुस्तैनी ऋण भरनें में ही जिसका जीवन बीत गया
भारत का भविष्य रचने में जिसका मरना जीना है
एक एक दानें में शामिल जिसका खून पसीना है
         उस किसान को शीतल मंद हवाएँ लिखता हूँ
          फक्कड़ हूँ..........................।

लिखता हूँ उस माँ की खातिर जिसने बेटा दान किया
कलम रखूं उसके चरणों में भाई का वलिदान दिया
जिसने दे डाला सिन्दूर देश को विधवा हुई जवानी में
अक्षर अक्षर मैं धो करके गंगा जी के पानी में
              उस देवी के लिए शब्द मालाएं लिखता हूँ
               फक्कड़ हूँ.....................................।