मेरे नयनों के छोटे गांव में
पलकों की शीतल सी छांव में
मन का पपीहा पिया-पिया
अधरों से रहा पुकार,
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।
संगमरमर देंह-देंह में
फूलों सी कोमलता है,
हिले ह्रदय पर हार-हार से,
कुछ-कुछ ऐसा लगता है,
ज्यो ताजमहल के गुम्बद पर उतरा है इंद्रधनुष कोई,
रंग-रंग कर अपने रंग-रंग में,
तेरा अंग-अंग रहा सँवार,
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मन्दिर के द्वार।
गंगा के तट पर रहकर मै,
रेती सा प्यासा-प्यासा हूँ,
मन उड़े गगन में रॉकेट सा ,
तन से जैसे मै नासा हूँ,
करता है अनुसंधान ह्रदय ज्यों चाँद पे ढूंढ़े जग पानी,
सपनों में चित्र भेजते हैं ,
बनकर दो नयन रडार
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।
जितना हमसे जाती हो दूर ,
उतना मिट जाता है सुकून,
जैसे आषाढ़ का मै किसान हूँ
तुम लगती हो मानसून
आते ही हरी भरी होती जाते बंजर हो जाती है
इस दिल की धरती की लगती तुम
पतझर और बहार।
धीरे-धीरे कोई आया मेरे मन मंदिर के द्वार।
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