मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

ग़ज़ल

तुम क्या जानो मन पर इतना बोझा कैसे ढो लेते हैं
जब एकांत समय मिलता है चुपके चुपके रो लेते हैं,

मेरी आँख बहुत छोटी थी तुमने सपने बड़े दिखाए ,
अब आँखों में राजमहल ले फुटपाथों पर सो लेते हैं।

पागल है पपिहा वर्षों से स्वाति बूँद पर भटक रहा,
चतुर वही हैं हाथ जो हर बहती गंगा में धो लेते हैं

हम किसान के बेटे साहब दुःख सह लेने की आदत है,
हम भूखे रहकर भी जग की ख़ातिर फ़सलें बो लेते हैं

मोम कह रहा था वह ख़ुद को पत्थर था पत्थर निकला,
समझ न आया पत्थर कैसे मोम सरीखे हो लेते हैं।

{2}
वफ़ा करी है करी तो ऐसी तुम्हारे बिन भी रहे तुम्हारे,
लड़े बहुत अपने आप से हम मगर जो हारे तुम्हीं से हारे।

नशा नयन का नहीं है मुझको अभी मैं लौटा हूँ मयकदे से,
मुझे कोई अब गली में उनके दीवाना कहकरके न पुकारे।

जो दिल में होते उतार देते कोई भले कुछ भी कहता लेकिन,
मेरा ही दिल जब बसा है उनमें भला मेरा दिल किसे उतारे

जनक ने देखा श्री राम जी को प्रभू ने देखा विशाल धनुहा,
विषम परिस्थिति है जानकी की सजल नयन से किधर निहारे,

तुम्हें तमन्ना थी राम बनकर कभी मैं आऊँ तुम्हारे दिल में,
न बेर तुमने रखे हैं घर पर न फ़ूल फेंके न पथ बुहारे।

भँवर में ले चल रे नाव माँझी तमाशा देखूँ ज़रा लहर का,
किनारे ही चाहते हैं मुझसे मैं फिर न लौटूँ कभी किनारे।

{3}

बिना बताए जहाँ गये तुम वहाँ भी अपना ख़याल रखना,
तुम्हारे बिन अब मैं कुछ नही हूँ मेरा न कोई मलाल रखना।

अभी समय ने मुझे मिटाया समय ही तुमसे हिसाब लेगा,
हमारी चाहत के आँकड़ों को कहीं ज़हन में सम्हाल रखना।

जो फूल से भी कभी थे नाजुक कलेजा पत्थर हुआ तो कैसे?
खुदा  मिले तो मैं चाहता हूं उसी के आगे सवाल रखना।

मिलेंगे पत्थर कई तरह के तुम्हारे कदमों को छील देंगे,
डगर मोहब्बत की अब नई है नए चलन की उछाल रखना।

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