रविवार, 31 मई 2020

सवैये (लोक की रीति)

आप सुनो 

लोक की रीति में हूँ उलझा मन चाहे बहूँ पै बहा नहिं जाए 
आप सुनो तो कहूँ मन की न सुनो यदि आप कहा नहि जाए,
सांप छछून्दर की गति है न कहूँ तो कहे से रहा नहिं जाए।
बोल किसी का चुभा इतना इतना इतना इतना कि सहा नहि जाए 

रंग लगा गयी गाल पे जो हम चाह के भी तो छुड़ा नहि पाए 
फ़ूल की गंध में लीन रहे बस फ़ूल की गंध चुरा नहि पाए 
हाथ हिला गए आप चले हम चाह के हाथ हिला नहिं पाए 
नैन से दूर गए तुम तो किसी और से नैन मिला नहि पाए 


पत्र पठाए कई सब लौट के आए तुम्हारा पता नही पाए 
पाँव चले कई मील चले पर ठीक कोई रस्ता नहि पाए 
सूरज ही ना मिला ढलता हुआ चाँद  नहीं उगता हुआ पाए 
प्यार किया तुमसे तुमसे पर बात यही कि बता नहि पाए।


आए तो आप बुलाए नही जो बुलाए भी तो हम आ नहि पाए 
जा तो रहे थे कि जाएँ चले जब जाने लगे तब जा नहि पाए 
एक तुम्हीं न मिली मुझको हम और भला अब क्या नहिं पाए 
प्यार मिला दुनिया का हमें हम ही अपनी दुनिया नहि पाए 

प्यार बड़ा महँगा था बाज़ार में और कहीं सस्ता नहि पाए
प्यार किया जिसने उसको हम तो न कभी हँसता हुआ पाए 
बात यही इतनी जितना समझे उतना समझा नहि पाए,
आग में पानी मिले कितना पर पानी को आग कहा नहि जाए,

बाग़ को ताल बता न सके हम ताल को बाग़ बता नहि पाए 
काव्य धरा पर घूम रहे हम काव्य आकाश में जा नहिं पाए 
चाह नही सुनने की जहाँ वहाँ चाह के भी हम गा नहि पाए 
आप बुला न सके मुझको न बुला सके आप तो आ नहि पाए 

राह न यूँ बदलो अपनी हम यूँ नही  तेरी राह में आए,
बाँह न जाने खुली कितनी पर एक तुम्हारी ही बाँह में आए,
थाहते थाहते सिन्धु कई अब नैन के सिन्धु अथाह में आए।
नैन हटे लगा आम की छाँह को छोड़ बबूल की छाँह में आए।


बालपना गुज़रा है अभाव में साहब सेठ नही बन पाए 
और जवान हुए तब रूप शिकारियों ने खूब जाल बिछाये 
चोर मिले चितचोर मिले पर चोरी में जा न सके हैं चुराए 
हाथ तुम्हारे लगे हम वो जो कभी भी किसी के भी हाथ न आये ।

मैं न कभी मिल पाता  तुम्हें मिलवाए गये हैं तभी मिल पाए ।
सत्य यही है कि ईश्वर चाह रहा था तुम्हें मुझसे चहवाये।
चाह ले दो दिल दूर करे वह चाह ले दो बिछड़ों को मिलाए।
चाह उसी की गजेन्द्र जहाँ पर शूल उगे वहाँ फ़ूल खिलाए 

चाह ले राई पहाड़ करे वह चाहे पहाड़ को राई बनाए 
चाहे तो भीख मंगा दे गली गली चाहे तो वी ठकुराई दिलाए 
चाह ले वो दुर्योधन का घर त्याग दे साग विदूर के खाए,
चाह ले तो कुटिया में रहे चाहे स्वर्ण की लंका में आग लगाए।

प्यार की रीति निबाह दो प्यार मिले न मिले यूं निबाहने वाला।
रूप तुम्हारा समन्दर है दिल मेरा समन्दर थाहने वाला।
यौवन भार से देह झुकी इसे चाहिए कोई सम्हालने वाला 
चाह नही तुम्हें आज मेरी कल चाह रहेगी न चाहने वाला।

1 टिप्पणी: