सोच रहा था अबकी जब भी फिर से सावन आएगा,
कह दूँगा बादल से तेरी याद न फिर से लाएगा।
माटी से कह दूँगा वह फिर सोंधी गंध न बिखराए,
और कहूँगा पुरवा से वह थोड़ा कम कम इठलाए,
दूबों से कह दूँगा अपने मोती अपने पास रखें,
सूरज को ले जाना है धरती पर आकर ले जाए।
सोच रहा था अबकी जब भी कहीं पपीहा गायेगा।
कह दूँगा उपवन से तेरी याद न फिर से लाएगा।
नदियाँ गाते गाते यदि फिर ज़िक्र तुम्हारा कर बैठी,
लहरें पूछेंगी तुम मेरे साथ नही तट पर बैठी,
सीप शंख सब पहचाने हैं उनको क्या बतलाऊँगा,
तुम पारस की चाहत में इस कंकड़ को बिसरा बैठी ,
सोच रहा था मांझी फिर से गीत तुम्हारा गायेगा,
कह दूंगा सरगम से तेरी याद न फिर से लाएगा।
सोच रहा हूँ दूर कोई क्यों दूर किसी से होकर,
कही किसी को पा लेता क्या कहीं किसी को खोकर
पत्थर से टकराकर लहरें चीख़ चीख़ कहती हैं,
ठोकर मारने वाले अक्सर खा जाते हैं ठोकर।
सोंच रहा था पत्थर से जब मेरा सर टकराएगा।
कह दूँगा मरहम से अबकी तेरी याद न लाएगा।।
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