डूबकर तुम तो किनारा पा गये ,
क्या कभी सोंचा भँवर का क्या हुआ?
जो तुम्हारे साथ थी लौटी नहीं,
क्या कभी सोंचा लहर का क्या हुआ?
जो लिए था कल तुम्हें आग़ोश में,
आज उसकी बाँह में कोई नही,
कश्तियाँ उससे किनारा कर गयी,
और लहरें रात भर सोयी नहीं।
जो अधूरी छोड़ दी तुमने ग़ज़ल,
क्या कभी सोंचा बहर का क्या हुआ?
तुम कमल की पांखुरी सी जी रही,
जल में रहकर जल से जो निर्लिप्त है।
जल में रहकर मैं जो जल में मिल गया,
मुझको दुनिया कह रही विक्षिप्त है।
रेत पर हमने बसाया था जिसे
क्या कभी सोंचा शहर का क्या हुआ।
पत्थरों के भाग्य में ही है लिखा
उम्र भर ठोकर लगानी है उन्हें,
किन्तु पाँवों से भला किसने कहा?
साथ ही उनके निभानी है उन्हें ।
ठोकरें खाए बिना ही जो चला
क्या कभी सोंचा सफ़र का क्या हुआ?
Priyanshu प्रियाँशु गजेन्द्र
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