आज मन बोझिल बहुत है,
मेघ घिर आये गगन में,
बूंद बन छाए नयन में,
आज कुछ ऐसा हुआ है,
जो न सोचा था सपन में।
राह में ठोकर लगी है दूर भी मंजिल बहुत है,
आज मन बोझिल बहुत है।
कुछ कही कुछ अनकही हैं,
पीर सब मैने सही है,
देह दुनिया घूमती पर,
आत्मा जिसकी रही है
आज वह मुझसे विमुख है,
जिसमे मेरा सर्व सुख है,
उनको मालुम भी नही है मेरा मन चोटिल बहुत है
आज मन बोझिल बहुत है।
उसने कुछ अंतस पढा था,
मेरा कुछ साहस बढ़ा था,
तुच्छ माला फूल थे पर,
पूजने का ज्वर चढ़ा था।
देवता तो देवता है,
उसकी भी तो क्या खता है,
मैंने जो कुछ खो दिया है उनको वह हासिल बहुत है।
आज मन बोझिल बहुत है।
प्रियांशु गजेन्द्र।
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